देशकाल और राजनीति को निरे वर्तमान के आईने में देखने की हमारी आदत कुछ ऐसी हो गई है कि हम तात्कालिक सफलता-विफलता को लगभग स्थायी मान लेते हैं और उसी आधार पर नेताओं या दलों का मूल्यांकन करते हैं - एक देश के रूप में अपने भविष्य का भी.
यह सच है कि 2014 और 2019 के आम चुनाव में राहुल गांधी और कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुए हैं. नरेंद्र मोदी और BJP की ऐतिहासिक जीत के आईने में यह हार कुछ और बड़ी और दुखी करने वाली लगती है. लेकिन अतीत में देखें तो ऐसे इकतरफ़ा परिणाम और अनुमान कांग्रेस और BJP दोनों के हक़ में आते रहे हैं और दोनों को हंसाते-रुलाते रहे हैं. 1984 में जब राजीव गांधी को 400 से ज्यादा सीटें मिली थीं और अटल-आडवाणी को महज 2, तब भी कुछ लोगों को लगा था कि अब तो BJP का सफ़ाया हो गया. लेकिन 1989 आते-आते BJP वीपी सिंह की सत्ता का एक पाया बनी हुई थी. 1996 में वह सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी, 1998 और 1999 में उसने गठबंधन सरकार बनाई और 2003 तक आते-आते लगने लगा कि वह तो बिल्कुल अजेय है. लेकिन 2004 में सोनिया और राहुल की टीम ने फिर से इतिहास का चक्का उलट दिया. 2009 में भी राजनीति का चक्र सोनिया और राहुल के पक्ष में मुड़ा रहा. तस्वीर 2014 से बदली. लेकिन सिर्फ़ इन छह सालों को भारतीय राजनीति का शाश्वत सत्य मान लेने की हड़बड़ी न दिखाएं, तो पाएंगे कि भारतीय राजनीति, भारतीय लोकतंत्र और समाज परिणामवादी चुनावी राजनीति से ज़्यादा बड़े साबित हुए हैं - अपने ठहरावों में भी और अपने बदलावों में भी.
दरअसल, भारतीय राजनीति और समाज में दो-तीन वैचारिक धाराएं हमेशा से चलती रही हैं. आज़ादी की लड़ाई के दौर में जो क्रांतिकारी आंदोलन था, वह भी महाराष्ट्र और गुजरात में अपेक्षया ज़्यादा हिन्दूवादी नज़र आता है, जबकि उत्तर भारत की पट्टी से निकलने वाले क्रांतिकारी गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाए रखने के हामी नज़र आते हैं. इसी तरह कांग्रेस बिल्कुल शुरुआत में किसी हिन्दूवादी दबाव से मुक़्त नज़र आती है, बीच के दौर में हिन्दूवादी प्रभाव उसके भीतर बढ़ता दिखता है और गांधी और नेहरू कांग्रेस के भीतर इस प्रभाव से लगातार लड़ते और उसको निर्मूल करते नज़र आते हैं. कांग्रेस उस दौर में चूंकि देश के बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व कर रही है, इसलिए कांग्रेस की बहसें छिटक-छिटककर बाकी देश की बहसें बन जाती हैं.
लेकिन इस सहिष्णु समावेशी भारत के समांतर राजनीति के दबाव में दो और धाराएं विकसित हो रही हैं, जो अपनी-अपनी तरह का राष्ट्र चाह और मांग रही हैं. धर्म के आधार पर द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत एक तरफ़ से विनायक दामोदर सावरकर बढ़ाते हैं और दूसरी तरफ़ से मोहम्मद अली जिन्ना. भारत की आज़ादी एक तरह से भारत के सपने को कुचलती हुई आती है और फिर एक समावेशी भारत के सामने ख़ुद को बचाने की चुनौती रखती है. इस मोड़ पर जिस भारतीय लोकतंत्र को - बड़े पैमाने पर अशिक्षा के बावजूद सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को, और भारत के सामाजिक विभाजन को - दुनिया संदेह से देख रही थी, वही इस राष्ट्र को बचा लाता है. भारत का वोटर अंततः अपने भटकावों के बावजूद अपने देश को बचा लाता है.
आज़ाद भारत में यह वोटर बार-बार मोहभंग का शिकार होता है, बार-बार नए सपने देखने की कोशिश करता है. नेहरू और कांग्रेस का दौर चल ही रहा है कि समाजवादी राजनीति की एक प्रबल धारा एक विकल्प की तरह खड़ी होती दिखाई पड़ती है. 1967 आते-आते लगता है कि अब तो कांग्रेस अतीत हो गई. यह प्रयोग फेल होता है, कांग्रेस फिर लौटती है और 1977 में फिर जैसे कभी न लौटने के लिए चली जाती है, लेकिन जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में हासिल दूसरी आज़ादी महज तीन साल के भीतर पिट जाती है और…
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति DlightNews उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार DlightNews के नहीं हैं, तथा DlightNews उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
यह सच है कि 2014 और 2019 के आम चुनाव में राहुल गांधी और कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुए हैं. नरेंद्र मोदी और BJP की ऐतिहासिक जीत के आईने में यह हार कुछ और बड़ी और दुखी करने वाली लगती है. लेकिन अतीत में देखें तो ऐसे इकतरफ़ा परिणाम और अनुमान कांग्रेस और BJP दोनों के हक़ में आते रहे हैं और दोनों को हंसाते-रुलाते रहे हैं. 1984 में जब राजीव गांधी को 400 से ज्यादा सीटें मिली थीं और अटल-आडवाणी को महज 2, तब भी कुछ लोगों को लगा था कि अब तो BJP का सफ़ाया हो गया. लेकिन 1989 आते-आते BJP वीपी सिंह की सत्ता का एक पाया बनी हुई थी. 1996 में वह सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी, 1998 और 1999 में उसने गठबंधन सरकार बनाई और 2003 तक आते-आते लगने लगा कि वह तो बिल्कुल अजेय है. लेकिन 2004 में सोनिया और राहुल की टीम ने फिर से इतिहास का चक्का उलट दिया. 2009 में भी राजनीति का चक्र सोनिया और राहुल के पक्ष में मुड़ा रहा. तस्वीर 2014 से बदली. लेकिन सिर्फ़ इन छह सालों को भारतीय राजनीति का शाश्वत सत्य मान लेने की हड़बड़ी न दिखाएं, तो पाएंगे कि भारतीय राजनीति, भारतीय लोकतंत्र और समाज परिणामवादी चुनावी राजनीति से ज़्यादा बड़े साबित हुए हैं - अपने ठहरावों में भी और अपने बदलावों में भी.
दरअसल, भारतीय राजनीति और समाज में दो-तीन वैचारिक धाराएं हमेशा से चलती रही हैं. आज़ादी की लड़ाई के दौर में जो क्रांतिकारी आंदोलन था, वह भी महाराष्ट्र और गुजरात में अपेक्षया ज़्यादा हिन्दूवादी नज़र आता है, जबकि उत्तर भारत की पट्टी से निकलने वाले क्रांतिकारी गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाए रखने के हामी नज़र आते हैं. इसी तरह कांग्रेस बिल्कुल शुरुआत में किसी हिन्दूवादी दबाव से मुक़्त नज़र आती है, बीच के दौर में हिन्दूवादी प्रभाव उसके भीतर बढ़ता दिखता है और गांधी और नेहरू कांग्रेस के भीतर इस प्रभाव से लगातार लड़ते और उसको निर्मूल करते नज़र आते हैं. कांग्रेस उस दौर में चूंकि देश के बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व कर रही है, इसलिए कांग्रेस की बहसें छिटक-छिटककर बाकी देश की बहसें बन जाती हैं.
लेकिन इस सहिष्णु समावेशी भारत के समांतर राजनीति के दबाव में दो और धाराएं विकसित हो रही हैं, जो अपनी-अपनी तरह का राष्ट्र चाह और मांग रही हैं. धर्म के आधार पर द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत एक तरफ़ से विनायक दामोदर सावरकर बढ़ाते हैं और दूसरी तरफ़ से मोहम्मद अली जिन्ना. भारत की आज़ादी एक तरह से भारत के सपने को कुचलती हुई आती है और फिर एक समावेशी भारत के सामने ख़ुद को बचाने की चुनौती रखती है. इस मोड़ पर जिस भारतीय लोकतंत्र को - बड़े पैमाने पर अशिक्षा के बावजूद सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को, और भारत के सामाजिक विभाजन को - दुनिया संदेह से देख रही थी, वही इस राष्ट्र को बचा लाता है. भारत का वोटर अंततः अपने भटकावों के बावजूद अपने देश को बचा लाता है.
आज़ाद भारत में यह वोटर बार-बार मोहभंग का शिकार होता है, बार-बार नए सपने देखने की कोशिश करता है. नेहरू और कांग्रेस का दौर चल ही रहा है कि समाजवादी राजनीति की एक प्रबल धारा एक विकल्प की तरह खड़ी होती दिखाई पड़ती है. 1967 आते-आते लगता है कि अब तो कांग्रेस अतीत हो गई. यह प्रयोग फेल होता है, कांग्रेस फिर लौटती है और 1977 में फिर जैसे कभी न लौटने के लिए चली जाती है, लेकिन जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में हासिल दूसरी आज़ादी महज तीन साल के भीतर पिट जाती है और…
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति DlightNews उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार DlightNews के नहीं हैं, तथा DlightNews उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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